Thursday, 21 November 2024

मल्टीमीडिया डेस्क। 29 जनवरी, मंगलवार को भीष्म पितामह जयंती है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, माघ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को भीष्म पितामह की जयंती मनाई जाती है। भीष्म पितामह छः महीने तक वाणों की शैय्या पर लेटे थे। शैय्या पर लेटे-लेटे वे सोच रहे थे कि मैंने कौन-सा पाप किया है जो मुझे इतने कष्ट सहन करने पड़ रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने तब उन्हें उनके उस पाप के बारे में बताया था, जिसके कारण उन्हें यह कष्ट झेलना पड़ा। पढ़िए इसी बारे में -
भगवान कृष्ण जब भीष्म के पास आए तो उन्होंने पूछा, मैंने ऐसे कौन-से पाप किए हैं कि वाणों की शैय्या पर लेटा हूं, पर प्राण नहीं निकल रहे हैं। भगवान कृष्ण ने कहा कि आप अपने पुराने जन्मों को याद करो और सोचो कि आपने कौन-सा पाप किया है। भीष्म बहुत ज्ञानी थे। उन्होंने कृष्ण से कहा कि मैंने अपने पिछले जन्म में रतीभर भी पाप नहीं किया है।
कृष्ण ने उन्हें बताते हुए कहा कि पिछले जन्म में जब आप राजकुमार थे और घोडे पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। उसी दौरान आपने एक नाग को जमीन से उठाकर फेंक दिया तो कांटों पर लेट गया था, पर 6 माह तक उसके प्राण नहीं निकले थे। उसी कर्म का फल है जो आप 6 महीने तक बाणों की शैय्या पर लेटे हैं।
महाभारत में भीष्म के कारण ही कृष्ण ने उठाया था हथियार
महाभारत में कौरव और पांडवों के बीच हो रहे युद्ध में कौरवों की सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना का कत्लेआम करना शुरू किया। पांडव सेना में हाहाकार मच गया। श्रीकृष्ण ने जब देखा कि पांडव सेना मुसीबत में है तो हथियार न उठाने का वचन देने के बावजूद वे स्वयं रथ का पहिया हाथ में थामकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ पड़े। श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाते देखकर भीष्म पितामह ने अपना शस्त्र नीचे रख दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जो भी करते थे, उसके पीछे एक उद्देश्य होता था। महाभारत में भी कई कहानियां हैं जहां लोगों को उनके काम समझ नहीं आए, लेकिन जब अंतिम परिणाम आया तो आभास हुआ कि कान्हा क्या सोच रहे थे। ऐसी ही एक कहानी जरासंध को लेकर भी है। आप भी पढ़िए -
कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासंध बहुत ही क्रोधित था। उसने कृष्ण और बलराम को मारने के लिए मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया।
जरासंध जब भी आक्रमण करता, उसे हार का मुंंह देखना पड़ता। वह फिर सेना जुटाता और ऐसे राजाओं को अपने साथ जोड़ता जो श्रीकृष्ण के खिलाफ थे, और फिर हमला बोल देता। हर बार श्रीकृष्ण पूरी सेना को मार देते, लेकिन जरासंध को छोड़ देते। बड़े भाई बलराम को यह बात अजीब लगती।
आखिर में एक युद्ध के बाद बलराम से रहा नहीं गया और उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया - "बार-बार जरासंध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों-कोनों से दुष्टों को अपने साथ जोड़ता है और हम पर आक्रमण कर देता है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो। ऐसे क्यों
तब हंसते हुए श्री कृष्ण ने बलराम को समझाया, "हे भ्राता श्री, मैं जरासंध को बार-बार जानबूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूं ताकि वह जरासन्ध पूरी पृथ्वी से दुष्टों को अपने साथ जोड़े और मेरे पास लाता रहे और मैं आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूं। नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता। दुष्टदलन का मेरा यह कार्य जरासंध ने बहुत आसान कर दिया है।"
 जब सभी दुष्टों को मार लूंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूंगा " चिन्ता न करो भ्राता श्री

सवाई माधोपुर। देवी के कई स्वरूप हैं और सभी स्वरूपों में देवी की आराधना और पूजा की जाती है। मां का हर रूप भक्तों के दुखों का हरण कर उनको सुख-समृद्धि का वरदान देता है। ऐसी ही एक देवी चौथ माता है, जिनकी प्राचीन प्रतिमा और मंदिर राजस्थान में सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गांव में स्थित है।
संकट चौथ की महिमा
वैसे तो राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गांव में स्थित चौथ माता का देवी का स्थान है। इसी के नाम पर इस गांव का नाम ही बरवाड़ा से बदल कर चौथ का बरवाड़ा हो गया है। ये चौथ माता का सबसे प्राचीन और सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर माना जाता है। परंतु चौथ माता मंदिर के अलावा मंदिर परिसर में भगवान गणेश और भैरव की मूर्तियों से सज्जित भव्य मंदिर और भी है। इसीलिए चौथ के दिन यहां गणेश जी की विशेष पूजा होती है।
इनमें भी संकष्ठी चतुर्थी व्रत की बहुत महिमा सबसे अधिक मानी जाती है। इस व्रत को वक्रतुंडी चतुर्थी, माघी चौथ और तिलकुटा चौथ व्रत के नाम से भी संबोधित किया जाता है। हिंदु पचांग के अनुसार ये व्रत माघ माह की चतुर्थी को आता है। सकट चौथ का व्रत संतान की लंबी आयु के लिए किया जाता है। राजस्थान में इसी तिलकुटा चौथ के दिन चौथ का बरवाड़ा में विशाल मेला भी लगता है।।
राजस्थानी शैली का खूबसूरत मंदिर
बताया जाता है कि इस मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने की थी। चौथ का बरवाड़ा, अरावली पर्वत श्रंखला में बसा हुआ मीणा व गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र है। बरवाड़ा का नाम 1451 में चौथ माता के नाम पर चौथ का बरवाड़ा घोषित किया गया था। ये मंदिर करीब एक हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर है और शहर से करीब 35 किमी दूर है।
ये स्थान पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है और इसका प्राकृतिक सौंदर्य मन को मोहने वाला है। इस जगह पर सफेद संगमरमर से बने कई स्मारक हैं। दीवारों और छत पर जटिल शिलालेख के साथ यह मंदिर वास्तुकला की परंपरागत राजपूताना शैली की झलक प्रस्तुत करता है।

मंदिर में वास्तुकला की परंपरागत राजपूताना शैली देखी जा सकती है। मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 700 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। देवी की मूर्ति के साथ यहां भगवान गणेश और भैरव की मूर्तियां भी हैं। 1452 में मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था।
जबकि मंदिर के रास्ते में बिजली की छतरी और तालाब 1463 में बनवाया गया। किंवदंतियों के अनुसार चौथ माता की प्रतिमा सन 1332 के लगभग चौरू गांव में स्थित थी। 1394 ईस्वी के लगभग चौथ माता मंदिर की स्थापना बरवाड़ा में महाराजा भीम सिंह द्वारा की गई थी, जो पंचाल के पास के गांव से चौथ माता की मूर्ति लाये थे।

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