Wednesday, 02 July 2025

भगवान राम के परम भक्‍त श्री हनुमान बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करने वाले माने जाते हैं। भक्‍त बड़े प्रेम से अपने आराध्‍य श्री हनुमान को सिंदूर चढ़ाते है। मान्‍यता है कि सिंदूर चढ़ाने से बजरंग बल‍ि प्रसन्‍न होते हैं। मान्‍यता है कि ऐसा करने से भक्‍तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है।
एक कथा के अनुसार, एक दिन हनुमान जी माता सीता के कक्ष में पहुंचे थे। उन्होंने देखा कि माता सीता लाल रंग की कोई चीज अपनी मांग में सजा रही हैं। हनुमान जी ने उत्सुक हो कर माता सीता से पूछा यह क्या है, जो आप अपनी मांग में सजा रही हैं। इस पर माता सीता ने कहा कि, यह सौभाग्य का प्रतीक सिंदूर है। इसे मांग में सजाने से मुझे रामजी का स्नेह प्राप्त होता है और उनकी आयु लंबी होती है। यह सुनकर हनुमान जी से रहा न गया और उन्होंने अपने पूरे शरीर को सिंदूर से रंग लिया। हनुमान मन ही मन विचार करने लगे कि इससे तो मेरे प्रभु श्रीकाम की आयु बहुत लंबी हो जाएगी और वह मुझे भी माता सीता की तरह स्नेह करेंगे।
सिंदूर लगे हनुमान जब प्रभु राम की सभा में गए तो लोग उन्हें देखकर हैरान रह गए। प्रभु राम ने हनुमान से पूरे शरीर पर सिंदूर लगाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि, इससे आप अमर हो जाएंगे और मुझे भी माता सीता की तरह आपका स्नेह मिलेगा। हनुमान जी की यह बात सुनकर प्रभु राम भाव विभोर हो गए और उन्होंने हनुमान को गले लगा लिया। उसी समय से हनुमान जी को सिंदूर अति प्रिय है और सिंदूर अर्पित करने वाले पर हनुमान जी काफी प्रसन्न रहते हैं।
महिलाएं हनुमान जी पर सिंदूर न चढ़ाए। वे केवल अपने पति, पुत्र और देवी मां को ही सिंदूर लगा सकती हैं। वे सिंदूर के स्थआन पर लाल रंग के फूल चढ़ा सकती हैं। महिलाएं हनुमान जी पर चढ़ाया हुआ सिंदूर मांग में न लगाकर अपनी चूड़ियों में लगाएं। बता दें कि, हनुमान जी को सिंदूर और चमेली का तेल लगाने से रोग, शोक और ग्रह दोष समाप्त हो जाते हैं।
जब भी किसी जरूरी काम से बाहर जाए तो हनुमान जी के चरणों का सिंदूर अवश्य अपने माथे पर लगाएं। इससे आपकी बुद्धि कुशाग्र होगी और अनचाहे संकट टल जाएंगे। मंगल ग्रह को अपने अनुकुल करने के लिए हनुमान जी को सिंदूर अर्पित करें।

मल्टीमीडिया डेस्क। नौ शक्तियों के मिलन को ही नवरात्रि कहते हैं। ज्यादातर लोग चैत्र और शारदीय नवरात्रि के बारे में जानते हैं और उस दौरान पूजा व व्रत करते हैं। मगर, इसके अलावा दो गुप्त नवरात्रि भी साल में होती हैं, जिनमें खासतौर पर गुप्त सिद्धियां पाने के लिए पूजा-अर्चना की जाती है। माघ और आषाढ़ में मनाई जाने वाली इन दोनों गुप्त नवरात्रि में साधक विशेष साधना करते हैं। माना जाता है कि गुप्त नवरात्रि में पूजा अर्चना करने से अपार सफलता मिलती है।
गुप्त नवरात्रि की प्रमुख देवियां
आम तौर पर जहां नवरात्र में जहां नौ देवियों की विशेष पूजा का प्रावधान है, वहीं गुप्त नवरात्र में 10 महाविद्या की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्र में पूजी जाने वाली 10 महाविद्याओं में मां काली, मां तारा देवी, मां त्रिपुर सुंदरी, मां भुवनेश्वरी, मां छिन्नमस्ता, मां त्रिपुर भैरवी, मां धूमावती, मां बगलामुखी, मां मातंगी और मां कमला देवी हैं। इस नवरात्र में में तंत्र और मंत्र दोनों के माध्यम से भगवती की पूजा की जाती है।
ऐसे करें शक्ति की साधना
गुप्त नवरात्र में मां भगवती की साधना गुप्त रूप से देर रात में की जाती है। तन और मन से पवित्र होकर माता की विधि-विधान से फल-फूल आदि चढ़ाने के बाद सरसों के तेल का दीपक जलाकर ॐ दुं दुर्गायै नमः मंत्र का जाप करें। आद्या शक्ति की इस साधना में लाल रंग के फूल, लाल सिंदूर और लाल रंग की चुनरी का प्रयोग करें। इससे जुड़ी साधना-आराधना को भी लोगों से गुप्त रखा जाता है। मान्यता है कि साधक जितने गुप्त तरीके से देवी की साधना करता है, उस पर भगवती की उतनी ही कृपा बरसती है।
इन मंत्रों का करें जाप
'ऊं ऐं हीं क्लीं चामुण्डाये विच्चे नम:'
'ऊं ऐं महाकालाये नम:'
'ऊं हीं महालक्ष्मये नम:'
'ऊं क्लीं महासरस्वतये नम:'
गुप्त नवरात्रि के दौरान न करें ये काम
इन दिनों में नाखून, बाल और दाढ़ी बनवाएं न बनवाएं।
कन्याओं को झूठा भोजन न दें। मांस-मदिरा से बचे।
झूठ नहीं बोलें और किसी का अपमान नहीं करें।

मल्टीमीडिया डेस्क। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार मानव जीवन को सोलह संस्कारों में पिरोया गया है। पहला संस्कार गर्भाधान संस्कार है जिसके जरिए मानव जीवन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसी तरह दूसरे संस्कारों को उम्र के हिसाब से पूरा करता हुआ मानव जीवन सोलहवे संस्कार यानी अंतिम संस्कार की ओर बढ़ता है और आत्मा के शरीर छोड़ने के साथ ही मानव जीवन का अंतिम संस्कार पूरा हो जाता है।
लेकिन इहलोक से परलोक में प्रस्थान करने के बाद भी इंसान को विधिपूर्वक अंतिम विदाई दी जाती है। इसमें सबसे प्रमुख है दाह संस्कार या नश्वर शरीर का पंचतत्व में विलिन होना। इसके शास्त्रों में नियम दिए गए हैं उन नियमों के अनुसार अग्निदाह करने पर मानव सभी तरह के मोहमाया और जीवन के जंजाल से मुक्त होकर श्रीहरी के चरणों में जगह पा जाता है।
गरुड़ पुराण के अनुसार मानव की मृत्यु किसी भी समय हो सकती है यह परमात्मा के हाथ में है, लेकिन उसका अंतिम संस्कार सिर्फ दिन के समय यानी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही किया जा सकता है। दिन ढलने के बाद यानी रात में मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए सूर्योदय का इंतजार करना चाहिए।
गरुड़ पुराण के अनुसार यदि अंतिम संस्कार सूर्यास्त के बाद किया जाता है तो मरने वाले को परलोक में कष्ट भोगने पड़ते और अगले जन्म में उसके अंगों में खराबी हो सकती है या कोई दोष हो सकता है। इसी कारण सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार उचित नहीं माना गया है। मोक्ष के लिए और मृतात्मा की मुक्ति के लिए दिन में अंतिम संस्कार का विधान है।
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि दिन ढलने के साथ ही स्वर्ग के कपाट बंद हो जाते हैं और नर्क के खुल जाते हैं। इसलिए दिन में अंतिम संस्कार करने पर मृतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और रात के समय अंतिम संस्कार करने पर नर्क की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में यह भी विधान है कि सूर्यास्त के बाद यदि किसी का निधन होता है तो मृत शरीर को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि मृत व्यक्ति की आत्मा वहीं पर भटकती रहती है और अपनों के नजदीक रहकर उनको देखती रहती है। यह भी कहा जाता है कि मृत्यु के बाद शरीर से आत्मा प्रस्थान कर जाती है और खाली शरीर में कोई बुरी आत्मा प्रवेश न कर ले इसलिए मृतक को रात को अकेला नहीं छोड़ा जाता है। और विधि अनुसार मृत शरीर को तुलसी के पौधे के पास रखने का भी प्रावधान है।
इस तरह से विधि-विधान से अंतिम संस्कार करने पर आत्मा परमात्मा में विलिन होकर देवलोक में स्थान पाती है।

मल्टीमीडिया डेस्क। हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियां होती हैं। अधिकमास में इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। पद्मपुराण में एकादशी का बहुत ही महात्मय बताया गया है एवं उसकी विधि विधान का भी उल्लेख किया गया है।
इसी में से एक है माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी, जिस दिन को षटतिला एकादशी मनाई जाती है और व्रत किया जाता है। इस बार 31 जनवरी को गुरुवार के दिन यह एकादशी मनाई जाएगी।
षटतिला एकादशी पर तिल के द्वारा भगवान विष्णु की पूजा अर्चना की जाती है। षटतिला एकादशी पर तिल का इस्तेमाल स्नान, प्रसाद, भोजन, दान, तर्पण आदि सभी चीजों में किया जाता है। इस दिन व्यक्ति को सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की तिलों से पूजा करनी चाहिए।
भगवान विष्णु को पीले फल, फूल, वस्त्र अर्पण करने चाहिए। मान्यता है कि इस दिन तिल का प्रयोग करने से व्यक्ति को पुण्य की प्राप्ति होती है और मन की इच्छा भी पूरी होती हैं। कहा जाता है तिल में महा लक्ष्मी का वास होता है, इसलिए बच्चों की पढ़ाई, ज्ञान और धन में लाभ होता है।
षठतिला एकादशी की कथा
नारद मुनि त्रिलोक भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने विष्णु भगवान को प्रणाम करके उनसे प्रश्न किया कि प्रभु षट्तिला एकादशी की क्या कथा है और इस एकादशी को करने से कैसा पुण्य मिलता है। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कहा प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी रहती थी। वह मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी। यह स्त्री मेरे निमित्त सभी व्रत रखती थी।
परंतु यह स्त्री कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी। अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री बैकुण्ड में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं स्वयं एक दिन भिक्षा लेने पहुंच गया। उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों पश्चात वह स्त्री भी देह त्याग कर मेरे लोक में आ गई।
यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह स्त्री घबराकर मेरे समीप आई और बोली मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली? तब मैंने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है। मैंने फिर उस स्त्री से बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब वे आपको षट्तिला एकादशी के व्रत का विधान बताएं।
स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से ब्रह्मणी ने षट्तिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गई। इसलिए हे नारद जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।
षठतिला एकादशी का फल
इस व्रत में तिल का छ: रूप में दान करना उत्तम फलदायी होता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का दान करता है उसे उतने हजार वर्ष स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है। ऋषिवर ने जिन 6 प्रकार के तिल दान की बात कही है वह इस प्रकार हैं 1. तिल मिश्रित जल से स्नान 2. तिल का उबटन 3. तिल का तिलक 4. तिल मिश्रित जल का सेवन 5. तिल का भोजन 6. तिल से हवन।
इन चीजों का स्वयं भी प्रयोग करें और किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उन्हें भी इन चीजों का दान दें। इस प्रकार जो षट्तिला एकादशी का व्रत रखते हैं, भगवान उनको अज्ञानता पूर्वक किए गए सभी अपराधों से मुक्त कर देते हैं और पुण्य दान देकर स्वर्ग में स्थान प्रदान करते हैं।

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