मल्टीमीडिया डेस्क। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत विनोबा एक बार रांजणागांव पधारे। संत जब भिक्षाटन के लिए निकले तो गृहस्वामिनी ने भिक्षा देते हुए कहा, 'महाराज आपसे एक विनती है। मेरे पति रोजाना मुझसे झगड़ा करते हैं और कहते हैं कि यदि तुने मेरी बात नहीं मानी तो मैं भी संतोबा के समान वैराग्य धारण कर लूंगा। आप ही बताए मैं क्या करूं संतोबा नें हंसते हुए कहा, 'इस बार यदि वह धमकी दे तो कह देना की वह घर छोड़कर संतोबा के साथ जा सकते हैं। मेरा जीवन आपके बगैर भी चल सकता है।' दूसरे ही दिन पति-पत्नी में किसी बात को लेकर तकरार हो गई। पति ने फिर से घर छोड़कर जाने और संतोबा की मंडली में शामिल होने की बात कही। इस बार पत्नी ने कह दिया, 'वह घर छोड़कर जा सकते हैं। मैं अकेले ही जीवन यापन कर लूंगी। पति ने पत्नी की बात से आहत होकर घर छोड़ दिया और वह संतोबा के पास पहुंच गया। संतोबा ने उसकी विनती पर उसको संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ने की इजाजत देते हुए उसको अपनी मंडली में शामिल कर लिया। संतोबा ने उसके शरीर पर भभूत मलने के साथ उसको कमंडल और झोली भिक्षाटन के लिए दी और कहा, 'नजदीक के गांव से भिक्षा मांगकर लाए।
वह गुरु आज्ञा से पास के गांव में भिक्षाटन के लिए गया। कई घरों में भिक्षा मांगने के बाद भी उसको ज्यादातर जगहों पर निराशा मिली। आखिर एक घर से उसको कुछ चपाती, चावल और तरकारी मिली। वह लेकर संतोबा के पास गया। संतोबा ने उस भिक्षा को ग्रहण करने के लिए कहा। उस व्यक्ति ने जब उस खाने को देखा तो खाने से इंकार कर दिया। तू संतोबा ने उससे कहा, 'हमारे लिए तो रोजाना यही 56 भोग है और हम इसको ही रोजाना ग्रहण करते हैं।'
इतना सुनते ही उस व्यक्ति की आंखों पर डला वैराग्य का परदा हट गया और वह बोला, 'इस तरह के संन्यास से रोजाना के झंझट वाली गृहस्थी लाख गुना बेहतर है।