Saturday, 01 February 2025

इस वक्त देश के तमाम लोगों की निगाहें मोदी सरकार द्वारा आगामी 1 फरवरी को पेश किए जाने वाले अंतरिम बजट की ओर लगी हैं। मोदी सरकार की ओर से ऐसे संकेत मिले हैं कि इस अंतरिम बजट में सिर्फ चार माह के लिए लेखानुदान ही पेश नहीं किया जाएगा, वरन देश की कुछ आर्थिक-सामाजिक चुनौतियों के समाधान हेतु नीतिगत दिशाएं भी प्रस्तुत की जाएंगी। चूंकि यह चुनावी साल है, लिहाजा उम्मीद की जा रही है कि अंतरिम बजट में आम आदमी, किसान, छोटे उद्यमियों व कारोबारियों, मध्यम वर्ग और लघु आयकरदाताओं के लिए राहत की घोषणाएं हो सकती हैं। इस बजट को लोक-लुभावन बनाए जाने की पूरी संभावनाएं हैं।
गौरतलब है कि अंतरिम बजट को लेकर ऐसी कोई कानूनी या संवैधानिक बाधा नहीं है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष करों में संशोधन करने का प्रस्ताव करने से रोके। अब तक अलग-अलग समय पर विभिन्न् केंद्र सरकारों द्वारा कुछ गैर-पारंपरिक अंतरिम बजट पेश हुए हैं। वर्ष 1962-63 में तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री मोरारजी देसाई ने अंतरिम बजट में नमक पर शुल्क हटाने के प्रस्ताव के साथ ही प्रशुल्क और व्यापार पर सामान्य समझौता (गैट) के तहत कुछ वादों को जारी रखने का भी प्रस्ताव किया था। वर्ष 1977-78 में वित्तमंत्री एमएम पटेल ने अंतरिम बजट में कंपनियों को आयकर पर अधिभार के भुगतान के एवज में भारतीय औद्योगिक विकास बैंक में जमा करने के लिए सक्षम बनाने का प्रस्ताव किया था। 1980-81 में वित्तमंत्री आर. वेंकटरमन ने लद्दाख के निवासियों, गरीबी उन्मूलन से जुड़े करदाताओं, अनुसूचित जाति-जनजाति के हितों को बढ़ावा देने वाले निगमों या अन्य संस्थाओं को आयकर में छूट का प्रस्ताव किया था।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004-05 में वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने अंतरिम बजट पेश था। उस समय राष्ट्रीय परिदृश्य पर आर्थिक सुधारों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की गतिशीलता दिखाई दे रही थी। जसवंत सिंह ने अंतरिम बजट में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों में नई रियायतों के प्रस्ताव रखे थे। खासतौर से कुछ तरह के सामान पर राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक शुल्क लगाने का प्रस्ताव था। वर्ष 2014-15 में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने जब अंतरिम बजट पेश किया था तो अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं थी। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे थे और राजकोषीय घाटा चिंताजनक स्थिति में था। ऐसे में अंतरिम बजट पेश करते हुए चिदंबरम ने जहां आर्थिक दिशाएं प्रस्तुत की, वहीं पूंजीगत उत्पादों समेत कई उत्पादों पर उत्पाद शुल्क घटा दिए थे। कई घरेलू उत्पादों के संरक्षण हेतु उत्पाद शुल्क की नई दरें भी घोषित कीं। यदि हम पिछले अंतरिम बजटों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाते हैं कि वर्ष 2004-05 में जसवंत सिंह ने व 2014-15 में पी. चिदंबरम ने कराधान प्रस्ताव जोर-शोर से प्रस्तुत किए थे और साथ ही पूरे सालभर के लिए विभिन्न् वर्गों के लिए राहतकारी प्रावधान भी पेश किए थे।
मोदी सरकार का यह अंतरिम बजट मुख्यत: खेती और किसानों को संबल प्रदान करने वाला हो सकता है। सरकार इस बजट में नकद के रूप में राहत देने के लिए ऐसी योजना प्रस्तुत कर सकती है, जिसके तहत किसानों को सबसिडी देने के बजाय सीधे उनके खातों में नकद रकम ट्रांसफर की जाए। सरकार खेती-बाड़ी से जुड़ी तमाम तरह की सबसिडी को जोड़ने की एक उपयुक्त योजना प्रस्तुत कर सकती है। कृषि कर्ज का लक्ष्य भी 10 फीसदी बढ़ाकर करीब 12 लाख करोड़ रुपए किया जा सकता है।
देश में असमानता और बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है और ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए यूनिवर्सल बेसिक इन्कम (यूबीआई) की जरूरत महसूस की जा रही है। पूर्व वित्तीय सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मण्यम ने वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वे में इस योजना की सिफारिश की थी। अंतरिम बजट में इस आशय की घोषणा होने की भी उम्मीद है। छोटे आयकरदाता नौकरीपेशा वर्ग के साथ-साथ मध्यम वर्ग के लोग भी चाहते हैं कि उन्हें आयकर राहत मिले, ऐसे में सरकार द्वारा अंतरिम बजट में आयकर छूट की सीमा को उपयुक्त रूप से बढ़ाया जा सकता है। वर्तमान में व्यक्तिगत आयकर छूट की सीमा 2.50 लाख रुपए है तथा 40 हजार रुपए का स्टैंडर्ड डिडक्शन सुनिश्चित है। आयकर की छूट की सीमा को दोगुना करके पांच लाख रुपए तक किया जा सकता है। इसके साथ ही आयकर की विभिन्न् स्लैबों के तहत भी राहत दी जा सकती है। अभी ढाई लाख से पांच लाख रुपए की आय पर पांच प्रतिशत की दर से कर लगता है। वहीं 5 से 10 लाख रुपए की आय पर 20 प्रतिशत तथा 10 लाख रुपए से अधिक की आय पर 30 प्रतिशत आयकर लगता है। अब पांच से 10 लाख रुपए तक की आमदनी पर कर की दर घटाकर 10 प्रतिशत और 10 से 20 लाख रुपए की आय पर 20 प्रतिशत तथा 20 लाख रुपए से अधिक की आय पर 25 प्रतिशत आयकर लगाया जा सकता है। वरिष्ठ नागरिक एवं महिला वर्ग के लिए आयकर में छूट की सीमा भी बढ़ाई जा सकती है। इसके साथ ही बचत को प्रोत्साहन देने के लिए धारा 80सी के तहत कटौती की सीमा बढ़ाकर 2.50 लाख रुपए की जा सकती है। चिकित्सा खर्च और परिवहन भत्ते पर भी आयकर छूट मिल सकती है। आगामी बजट में छोटी-बड़ी हर प्रकार की कंपनियों पर कॉर्पोरेट कर की दर घटाकर 25 फीसदी रखी जा सकती है। इससे कारोबार का विस्तार होगा और कर संग्रह भी बढ़ेगा।
अंतरिम बजट में रीयल एस्टेट सेक्टर को भी प्रोत्साहन दिखाई दे सकता है। यदि इस सेक्टर को उद्योग का दर्जा मिलता है तो इससे जुड़े अन्य उद्योगों को भी तेजी मिलेगी। इससे कम दर पर फंडिंग हासिल करने में भी मदद मिलेगी। डिजिटल ट्रांजेक्शन करने पर टैक्स में छूट दी जा सकती है।
इस अंतरिम बजट में स्टार्टअप्स के लिए एंजेल टैक्स खत्म करने और ई-केवाईसी में ढील की स्थिति दिखाई दे सकती है। एंजेल टैक्स के कारण स्टार्टअप्स में निवेश बाधित हो रहा है। इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा, छोटे उद्योग-कारोबार और कौशल विकास जैसे विभिन्न् आवश्यक क्षेत्रों के लिए बजट आवंटन में बढ़ोतरी की जा सकती है। निर्यातकों को रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर विशेष इंसेंटिव दिया जा सकता है। सालाना पांच करोड़ रुपए तक बिजनेस वाली कंपनियों को कर्ज पर ब्याज में 2 फीसदी तक छूट देने का प्रोत्साहन सुनिश्चित किया जा सकता है। हम आशा करें कि अंतरिम बजट में सरकार एक ओर विभिन्न् वर्गों की आर्थिक अपेक्षाओं के मुताबिक उपयुक्त रियायतें एवं प्रोत्साहन देते हुए दिखाई देगी, वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के ऐसे कदम उठाती हुई भी दिखेगी, जिससे वर्ष 2019 के अंत तक भारत वैश्विक अध्ययन रिपोर्ट्स में जताए गए अनुमानों के मुताबिक दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी बन जाए।

राहुल गांधी ने प्रियंका को महासचिव बनाने के साथ पूर्वी उप्र का प्रभार सौंपकर जताया कि वह इस राज्य में वापसी को लेकर गंभीर हैं।
केवल चुनावों के समय अमेठी और रायबरेली में राजनीतिक सक्रियता दिखाती रहीं प्रियंका गांधी वाड्रा को यकायक कांग्रेस महासचिव बनाए जाने का फैसला चौंकाने वाला भले हो, लेकिन उसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। एक लंबे अरसे से यह कहा-माना जा रहा था कि वह राहुल गांधी के हाथ मजबूत करने हेतु राजनीति में सक्रिय होंगी। आखिरकार वह न केवल महासचिव बनाई गईं, बल्कि उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर यह बताने की भी कोशिश की गई कि वह हर तरह की राजनीतिक चुनौती का सामना करने को तैयार हैं। लंबे वक्त बाद ऐसा पहली बार होगा, जब नेहरू-गांधी परिवार के दो सदस्य एक साथ राजनीति में सक्रिय नजर आएंगे। भाई-बहन की सियासी सक्रियता से कांग्रेस में परिवारवाद की राजनीति का जो नया रूप देखने को मिलेगा, उससे पार्टी के भीतर के समीकरण भी बदल सकते हैं। लगता है कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने में हुई देरी के कारण प्रियंका के राजनीति में विधिवत प्रवेश में विलंब हुआ। जो भी हो, इसमें दोराय नहीं कि गांधी परिवार का सदस्य होने के नाते ही वह सीधे कांग्रेस महासचिव बनने में सफल रहीं। यह साफ है कि उनके महासचिव बनने से वंशवाद की राजनीति को बल मिला है, लेकिन यह समय बताएगा कि उनकी राजनीतिक सक्रियता कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने में कितनी सहायक बनेगी?
यह सही है कि प्रियंका के महासचिव बनने से कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित होंगे और चुनाव के दौरान वह भीड़ को आकर्षित भी करेंगी, लेकिन इसमें संदेह है कि उनकी इंदिरा जैसी कथित छवि उन्हें एक सफल नेता बनाने का काम करेगी। एक तो इंदिरा गांधी को गुजरे हुए अच्छा-खासा समय बीत गया और दूसरे, आज का भारत नया भारत है। आज की पीढ़ी नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षित तो हो सकती है, लेकिन वह उनका अनुसरण तभी करेगी, जब वे उसकी अपेक्षाओं को पूरा करते दिखेंगे। प्रियंका मुखर होने के साथ ही राजनीतिक मिजाज अवश्य रखती हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक सोच-समझ की असली परीक्षा होना अभी शेष है। नि:संदेह इसका पता भी आने वाले वक्त में ही चलेगा कि वह पति राबर्ट वाड्रा से जुड़े विवादों का सामना किस तरह करेंगी? बहन प्रियंका को महासचिव बनाने के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपकर राहुल गांधी ने यही स्पष्ट किया है कि वह उत्तर प्रदेश में वापसी करने को लेकर गंभीर हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश को सियासी तौर पर दो हिस्सों में बांटकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान प्रियंका को शायद इसीलिए दी, ताकि कार्यकर्ताओं को यह संदेश जाए कि मोदी और योगी के गढ़ में कांग्रेस मुकाबले को तैयार है। वह सिर्फ भाजपा के समक्ष ही चुनौती पेश करने नहीं दिख रहे, बल्कि सपा और बसपा को भी यह संदेश दे रहे हैं कि वे उत्तर प्रदेश को अपने लिए खुला मैदान न समझें। यदि पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रियंका और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के सहारे कांग्रेस दम-खम दिखाती है तो आम चुनाव त्रिकोणीय मुकाबले की शक्ल ले सकते हैं। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह स्थिति भाजपा के लिए लाभदायक हो सकती है।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार के कार्यों का मूल्यांकन जनता पर छोड़ा, उससे साफ है कि वह आम चुनाव का सामना करने को तैयार हैं।
नव-वर्ष के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में करीब-करीब सभी ज्वलंत मुद्दों पर जिस विस्तार से जवाब दिए, उससे आने वाले दिनों का राजनीतिक एजेंडा तय हो सकता है। इसी साक्षात्कार में उन्होंने अपनी सरकार की ओर से किए गए कार्यों का मूल्यांकन जिस तरह जनता पर छोड़ा, उससे यह स्पष्ट हुआ कि उन्हें अपनी उपलब्धियों पर संतोष है और वह आम चुनावों का सामना करने की तैयारी कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था, राजनीति, रक्षा-सुरक्षा और सामाजिक मसलों से लेकर अन्य अनेक मुद्दों से संबंधित सवालों के जो जवाब दिए, उन पर विपक्ष की असहमति और अलग राय हो सकती है, लेकिन बेहतर होगा कि वह यह समझे कि अयोध्या विवाद का शीघ्र समाधान सबके हित में है और इसे राजनीति का विषय बनाने से बचा जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए फिलहाल अध्यादेश नहीं लाया जा रहा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस तरह की कोई पहल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही हो सकती है। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने एक तरह से वह मांग खारिज कर दी, जिसके तहत अयोध्या विवाद के समाधान के लिए कानून बनाने या फिर अध्यादेश लाने को कहा जा रहा है। यह ठीक भी है, क्योंकि जो मसला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन हो उस पर कानून बनाने या अध्यादेश लाने का औचित्य नहीं बनता। इसलिए और भी नहीं बनता, क्योंकि अयोध्या विवाद के हल के लिए लाया जाने वाला कोई भी कानून न्यायपालिका के समक्ष ही पहुंचेगा। इस तरह मामला वहीं का वहीं रहेगा।
अयोध्या मसले पर प्रधानमंत्री का बयान एक ऐसे समय आया, जब इस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई फिर से शुरू होने वाली है। यह मसला सतह पर आया ही इसलिए, क्योंकि बीते साल के अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर सुनवाई टाल दी थी। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए मांग तेज ही नहीं होती। जो भी हो, कम से कम अब यही अपेक्षित है और आवश्यक भी कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले का निपटारा शीघ्र करे। इससे भी अच्छा यह होगा कि इस मसले का समाधान आपसी बातचीत के जरिए निकालने की कोशिश की जाए। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि भारतीय समाज को प्रभावित करने वाले इस मसले का हल आपसी सहमति से निकले। इससे देश में न केवल शांति एवं सद्भाव का वातावरण बनेगा, बल्कि दुनिया को एक अच्छा संदेश भी जाएगा। अयोध्या विवाद का आपसी सहमति से समाधान एक सुनहरा अवसर है। इसका उपयोग किया जाना चाहिए। यह सही है कि अतीत में आपसी बातचीत के जरिए अयोध्या विवाद का समाधान निकालने की कोशिश सफल नहीं हो सकी, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि नए सिरे से कोई पहल न की जाए। अगर राजनीतिक संकीर्णता और स्वार्थ को परे रखा जा सके और सामाजिक सद्भाव की महत्ता को समझा जा सके तो इस जटिल विवाद का समाधान बहुत आसानी से निकल सकता है। बेहतर होगा कि वे लोग आगे आएं, जो अयोध्या विवाद के समाधान के साथ सद्भाव के भी हामी हैं।

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