Friday, 22 November 2024

 
 
 पब्लिकयूवाच- स्वाभाविक है कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत आतंकी के साथ किसी की सहानुभूति नहीं हो सकती। विकास दुबे और उसके गैंग ने 8 पुलिस वालों को जिस बेरहमी से मारा उसके बाद जनमानस में जो गुस्सा था वो सबने देखा ही है।महाकाल परिसर में जो हुआ वो लोगों के गले उतर नहीं रहा था। अब एनकाउंटर पर सवाल उठ रहे हैं।
स्वाभाविक है कि विकास दुबे भारतीय कानून व्यवस्था के तहत सख्त से सख्त सजा का हकदार था। लेकिन जिन परिस्थितियों में यह सब कुछ घटा वो स्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रहीं हैं, इसलिए सवाल भी स्वाभाविक हैं।
कोई सवाल अगर पुलिस नाम की संस्था के हौसले कम करते हों तो व्यापक जनहित में ऐसे सवालों को कुछ देर के लिए रोक लीजिए। गहरी सांस लीजिए,थोड़ा सोचिए, फिर तय कीजिये कि कोई सवाल यदि पुलिस के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हों तो भी क्या उनके लिए जगह न रखी जाए? सोचिए कि लोकतंत्र कानून के राज से मजबूत होगा या अराजकता से?
जिस समय आप किसी ऐसे हत्यारे को सरेआम गोलियों से भून डालने की कामना कर रहे होते हैं तब सोचिए कि क्या आपने कभी उस समय एक सवाल भी किया था, जब आपकी आँखों के सामने कोई एक व्यक्ति अपराध करते करते विकास दुबे बन जाता है ।
सोचिए कि सड़क पर त्वरित न्याय से खुश होने वाले हम या आप क्या कभी उस व्यवस्था पर सवाल उठा भी पाते हैं जो विकास दुबे बनाती है? सोचिए कि जब आप किसी चुनाव में वोट देने के लिए घर से निकलते हैं तो क्या आपने कभी यह सोचा था कि आपको एक अपराध मुक्त,सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए वोट देना है? सोचिए कि वोट देते समय आपकी प्रज्ञा का हरण कौन कर जाता है! सोचना छोड़िए हममें से करीब-करीब आधे से कुछ कम तो वोट भी नहीं देने जाते ।
कानपुर एनकाउंटर ऐसी कोई इकलौती घटना नहीं है जिस पर तकनीकी सवाल उठें या अंतहीन बहस होती रहे।किसी दुर्दांत अपराधी की मौत का शोकगीत कोई नहीं गाना चाहेगा लेकिन कानपुर एनकाउंटर फिर एक ऐसा मौका ज़रूर है कि हमको आपको यह तय करना होगा कि हम कैसा समाज चाहते हैं,कैसा देश चाहते हैं? अगर समाज ऐसा ही हो जो ना विकास दुबे बनने की प्रक्रिया पर मुंह खोले और ना जिसमें यह सवाल करने की इच्छा हो कि जब घटना स्थल से 2 किलोमीटर पहले मीडिया को रोक दिया गया था तब क्या एनकाउंटर हो चुका था,तो संतोष कीजिये कि अब आप लगभग ऐसे ही समाज का हिस्सा हैं।लेकिन अगर आपको लगता है कि आपको कानून का राज चाहिए, आपको ऐसा समाज चाहिए जिसमें हम आप जैसे नागरिकों की न्याय व्यवस्था पर आस्था अटूट रहे तो इसके लिए आपको सिर्फ सवाल पूछने हैं। आपको सिर्फ इतना ही तो करना है कि टीवी एंकर्स के नज़रिए से सब कुछ देखना छोड़ देना है और अपने विवेक को काम पर लगाना है। जब हम ऐसा कर पाएंगे तब यह भी तो देख पाएंगे कि वो कौन सी ताकते हैं,वो कौन सी प्रवृत्तियां हैं,वो कौन सी साज़िशें हैं जो हमें सवाल करने से रोकती हैं,जिन्होंने हमारी चेतना का हरण कर लिया है,जो हमें मजबूर कर रहीं हैं कि हम इस व्यवस्था में बस ताली-थाली पीटने वाले दर्शक बने रहें ।
अगर लोकतांत्रिक समाज की हमारी आकांक्षा बची है, अगर कानून के राज की आकांक्षा बची है तो इन आकांक्षाओं का एनकाउंटर कर रही प्रवृत्तियों की शिनाख्त ज़रूरी है।
आज यह चर्चा अलोकप्रिय लग सकती है लेकिन लोकप्रियता का आंनद बड़ा नशीला होता है। हम ना महंगाई समझते हैं, ना बेरोजगारी समझ पाते हैं, न अपराध मुक्त समाज समझ पाते हैं,ना शिक्षा के सवाल समझ आते हैं,विदेश नीति वगैरह को तो छोड़िए हम पीने के साफ पानी तक की बात नहीं कर पाते। ये आनंद बड़ा उन्मादी बना देता है। हमें कभी सिर्फ दर्शक तो कभी विदूषक सा बना देता है। हम देख ही नहीं पाते कि हमारे लिए नायकत्व के प्रतिमान कितनी खामोशी से बदलते जा रहे हैं। झूठ हमारे लिए सब से बड़ा सच बन गया और हम इस हकीकत का एहसास भी नहीं करना चाहते ।
फिलहाल इतना ही सोचिए कि अब उन सवालों का जवाब कौन देगा जो विकास दुबे से होने थे ? ये तो ऐसा सवाल है जो शहीद पुलिस वालों के परिजन भी कर रहे हैं! हम आप तो उनके साथ हैं न? तो सवाल कीजिये ।
अच्छा चलिए, इस सवाल से असुविधा हो रही हो तो इतना तो पूछ ही लीजिए कि सीबीएसई के पाठ्यक्रम को हल्का करने के लिए लोकतांत्रिक अधिकार,धर्मनिरपेक्षता और खाद्य सुरक्षा जैसे पाठ ही हटाने क्यों ज़रूरी थे ।
 
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