Tuesday, 21 May 2024

मल्टीमीडिया डेस्क। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार मानव जीवन को सोलह संस्कारों में पिरोया गया है। पहला संस्कार गर्भाधान संस्कार है जिसके जरिए मानव जीवन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसी तरह दूसरे संस्कारों को उम्र के हिसाब से पूरा करता हुआ मानव जीवन सोलहवे संस्कार यानी अंतिम संस्कार की ओर बढ़ता है और आत्मा के शरीर छोड़ने के साथ ही मानव जीवन का अंतिम संस्कार पूरा हो जाता है।
लेकिन इहलोक से परलोक में प्रस्थान करने के बाद भी इंसान को विधिपूर्वक अंतिम विदाई दी जाती है। इसमें सबसे प्रमुख है दाह संस्कार या नश्वर शरीर का पंचतत्व में विलिन होना। इसके शास्त्रों में नियम दिए गए हैं उन नियमों के अनुसार अग्निदाह करने पर मानव सभी तरह के मोहमाया और जीवन के जंजाल से मुक्त होकर श्रीहरी के चरणों में जगह पा जाता है।
गरुड़ पुराण के अनुसार मानव की मृत्यु किसी भी समय हो सकती है यह परमात्मा के हाथ में है, लेकिन उसका अंतिम संस्कार सिर्फ दिन के समय यानी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही किया जा सकता है। दिन ढलने के बाद यानी रात में मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए सूर्योदय का इंतजार करना चाहिए।
गरुड़ पुराण के अनुसार यदि अंतिम संस्कार सूर्यास्त के बाद किया जाता है तो मरने वाले को परलोक में कष्ट भोगने पड़ते और अगले जन्म में उसके अंगों में खराबी हो सकती है या कोई दोष हो सकता है। इसी कारण सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार उचित नहीं माना गया है। मोक्ष के लिए और मृतात्मा की मुक्ति के लिए दिन में अंतिम संस्कार का विधान है।
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि दिन ढलने के साथ ही स्वर्ग के कपाट बंद हो जाते हैं और नर्क के खुल जाते हैं। इसलिए दिन में अंतिम संस्कार करने पर मृतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और रात के समय अंतिम संस्कार करने पर नर्क की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में यह भी विधान है कि सूर्यास्त के बाद यदि किसी का निधन होता है तो मृत शरीर को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि मृत व्यक्ति की आत्मा वहीं पर भटकती रहती है और अपनों के नजदीक रहकर उनको देखती रहती है। यह भी कहा जाता है कि मृत्यु के बाद शरीर से आत्मा प्रस्थान कर जाती है और खाली शरीर में कोई बुरी आत्मा प्रवेश न कर ले इसलिए मृतक को रात को अकेला नहीं छोड़ा जाता है। और विधि अनुसार मृत शरीर को तुलसी के पौधे के पास रखने का भी प्रावधान है।
इस तरह से विधि-विधान से अंतिम संस्कार करने पर आत्मा परमात्मा में विलिन होकर देवलोक में स्थान पाती है।

मल्टीमीडिया डेस्क। हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियां होती हैं। अधिकमास में इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। पद्मपुराण में एकादशी का बहुत ही महात्मय बताया गया है एवं उसकी विधि विधान का भी उल्लेख किया गया है।
इसी में से एक है माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी, जिस दिन को षटतिला एकादशी मनाई जाती है और व्रत किया जाता है। इस बार 31 जनवरी को गुरुवार के दिन यह एकादशी मनाई जाएगी।
षटतिला एकादशी पर तिल के द्वारा भगवान विष्णु की पूजा अर्चना की जाती है। षटतिला एकादशी पर तिल का इस्तेमाल स्नान, प्रसाद, भोजन, दान, तर्पण आदि सभी चीजों में किया जाता है। इस दिन व्यक्ति को सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की तिलों से पूजा करनी चाहिए।
भगवान विष्णु को पीले फल, फूल, वस्त्र अर्पण करने चाहिए। मान्यता है कि इस दिन तिल का प्रयोग करने से व्यक्ति को पुण्य की प्राप्ति होती है और मन की इच्छा भी पूरी होती हैं। कहा जाता है तिल में महा लक्ष्मी का वास होता है, इसलिए बच्चों की पढ़ाई, ज्ञान और धन में लाभ होता है।
षठतिला एकादशी की कथा
नारद मुनि त्रिलोक भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने विष्णु भगवान को प्रणाम करके उनसे प्रश्न किया कि प्रभु षट्तिला एकादशी की क्या कथा है और इस एकादशी को करने से कैसा पुण्य मिलता है। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कहा प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी रहती थी। वह मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी। यह स्त्री मेरे निमित्त सभी व्रत रखती थी।
परंतु यह स्त्री कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी। अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री बैकुण्ड में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं स्वयं एक दिन भिक्षा लेने पहुंच गया। उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों पश्चात वह स्त्री भी देह त्याग कर मेरे लोक में आ गई।
यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह स्त्री घबराकर मेरे समीप आई और बोली मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली? तब मैंने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है। मैंने फिर उस स्त्री से बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब वे आपको षट्तिला एकादशी के व्रत का विधान बताएं।
स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से ब्रह्मणी ने षट्तिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गई। इसलिए हे नारद जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।
षठतिला एकादशी का फल
इस व्रत में तिल का छ: रूप में दान करना उत्तम फलदायी होता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का दान करता है उसे उतने हजार वर्ष स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है। ऋषिवर ने जिन 6 प्रकार के तिल दान की बात कही है वह इस प्रकार हैं 1. तिल मिश्रित जल से स्नान 2. तिल का उबटन 3. तिल का तिलक 4. तिल मिश्रित जल का सेवन 5. तिल का भोजन 6. तिल से हवन।
इन चीजों का स्वयं भी प्रयोग करें और किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उन्हें भी इन चीजों का दान दें। इस प्रकार जो षट्तिला एकादशी का व्रत रखते हैं, भगवान उनको अज्ञानता पूर्वक किए गए सभी अपराधों से मुक्त कर देते हैं और पुण्य दान देकर स्वर्ग में स्थान प्रदान करते हैं।

मल्टीमीडिया डेस्क। 29 जनवरी, मंगलवार को भीष्म पितामह जयंती है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, माघ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को भीष्म पितामह की जयंती मनाई जाती है। भीष्म पितामह छः महीने तक वाणों की शैय्या पर लेटे थे। शैय्या पर लेटे-लेटे वे सोच रहे थे कि मैंने कौन-सा पाप किया है जो मुझे इतने कष्ट सहन करने पड़ रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने तब उन्हें उनके उस पाप के बारे में बताया था, जिसके कारण उन्हें यह कष्ट झेलना पड़ा। पढ़िए इसी बारे में -
भगवान कृष्ण जब भीष्म के पास आए तो उन्होंने पूछा, मैंने ऐसे कौन-से पाप किए हैं कि वाणों की शैय्या पर लेटा हूं, पर प्राण नहीं निकल रहे हैं। भगवान कृष्ण ने कहा कि आप अपने पुराने जन्मों को याद करो और सोचो कि आपने कौन-सा पाप किया है। भीष्म बहुत ज्ञानी थे। उन्होंने कृष्ण से कहा कि मैंने अपने पिछले जन्म में रतीभर भी पाप नहीं किया है।
कृष्ण ने उन्हें बताते हुए कहा कि पिछले जन्म में जब आप राजकुमार थे और घोडे पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। उसी दौरान आपने एक नाग को जमीन से उठाकर फेंक दिया तो कांटों पर लेट गया था, पर 6 माह तक उसके प्राण नहीं निकले थे। उसी कर्म का फल है जो आप 6 महीने तक बाणों की शैय्या पर लेटे हैं।
महाभारत में भीष्म के कारण ही कृष्ण ने उठाया था हथियार
महाभारत में कौरव और पांडवों के बीच हो रहे युद्ध में कौरवों की सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना का कत्लेआम करना शुरू किया। पांडव सेना में हाहाकार मच गया। श्रीकृष्ण ने जब देखा कि पांडव सेना मुसीबत में है तो हथियार न उठाने का वचन देने के बावजूद वे स्वयं रथ का पहिया हाथ में थामकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ पड़े। श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाते देखकर भीष्म पितामह ने अपना शस्त्र नीचे रख दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जो भी करते थे, उसके पीछे एक उद्देश्य होता था। महाभारत में भी कई कहानियां हैं जहां लोगों को उनके काम समझ नहीं आए, लेकिन जब अंतिम परिणाम आया तो आभास हुआ कि कान्हा क्या सोच रहे थे। ऐसी ही एक कहानी जरासंध को लेकर भी है। आप भी पढ़िए -
कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासंध बहुत ही क्रोधित था। उसने कृष्ण और बलराम को मारने के लिए मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया।
जरासंध जब भी आक्रमण करता, उसे हार का मुंंह देखना पड़ता। वह फिर सेना जुटाता और ऐसे राजाओं को अपने साथ जोड़ता जो श्रीकृष्ण के खिलाफ थे, और फिर हमला बोल देता। हर बार श्रीकृष्ण पूरी सेना को मार देते, लेकिन जरासंध को छोड़ देते। बड़े भाई बलराम को यह बात अजीब लगती।
आखिर में एक युद्ध के बाद बलराम से रहा नहीं गया और उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया - "बार-बार जरासंध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों-कोनों से दुष्टों को अपने साथ जोड़ता है और हम पर आक्रमण कर देता है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो। ऐसे क्यों
तब हंसते हुए श्री कृष्ण ने बलराम को समझाया, "हे भ्राता श्री, मैं जरासंध को बार-बार जानबूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूं ताकि वह जरासन्ध पूरी पृथ्वी से दुष्टों को अपने साथ जोड़े और मेरे पास लाता रहे और मैं आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूं। नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता। दुष्टदलन का मेरा यह कार्य जरासंध ने बहुत आसान कर दिया है।"
 जब सभी दुष्टों को मार लूंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूंगा " चिन्ता न करो भ्राता श्री

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