- सम्पादकीय
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कश्मीर की राह

लोक-लुभावन राजनीति किस तरह आर्थिक नियम-कानूनों को ताक पर रखकर चलती है, इसका ही उदाहरण राहुल गांधी की यह घोषणा है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह देश के सबसे गरीब पांच करोड़ परिवारों को 72,000 रुपए सालाना देगी। इसका मतलब है छह हजार रुपए प्रतिमाह। लगता है कि राहुल गांधी गरीब किसानों को छह हजार रुपए सालाना देने की मोदी सरकार की योजना के जवाब में अपनी यह योजना लाए हैं। उन्होंने जिस तरह यह हिसाब दिया कि इससे करीब 25 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे, उससे यही पता चलता है कि वह यह मानकर चल रहे हैं कि गरीब परिवारों की औसतन सदस्य संख्या पांच है।
भले ही कांग्रेस अध्यक्ष ने न्यूनतम आय योजना को दुनिया की ऐतिहासिक योजना करार दिया हो, लेकिन देश्ा यह जानना चाहेगा कि आखिर वह इस आंकड़े तक कैसे पहुंचे कि देश्ा में सबसे गरीब परिवारों की संख्या पांच करोड़ है? एक सवाल यह भी है कि यह कैसे जाना जाएगा कि किसी गरीब परिवार के मुखिया की मौजूदा मासिक आय कितनी है, क्योंकि राहुल गांधी के अनुसार, गरीब परिवार की आय 12 हजार रुपए महीने से जितनी कम होगी, उतनी ही राशि उसे और दी जाएगी। समझना कठिन है कि कांग्रेस किस तरह एक ओर गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपए भी देना चाहती है और दूसरी ओर ऐसे परिवारों की हर महीने की आय 12 हजार रुपए भी सुनिश्चित करना चाहती है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपए देने के लिए प्रति वर्ष तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपए की भारीभरकम धनराशि कहां से जुटाई जाएगी? क्या कांग्रेस के सत्ता में आते ही पैसे पेड़ पर उगने लगेंगे या फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा आदि के बजट में कटौती कर दी जाएगी ।
पता नहीं राहुल गांधी की न्यूनतम आय योजना की घोषणा सुनने वाले संवाददाता हैरान हुए या नहीं, लेकिन आर्थिक मामलों के जानकार अवश्य हैरान हुए होंगे। अगर इस योजना पर सचमुच तीन-चार महीने से काम चल रहा था और इसका आकलन कर लिया गया है कि देश के पास इतना पैसा है कि पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपए आसानी से दिए जा सकते हैं, तो क्या यह अच्छा नहीं होता कि यह स्पष्ट कर दिया जाता कि राजकोषीय घाटे और मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखते हुए सालाना तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपए का प्रबंध कैसे कर लिया जाएगा? जब तक यह स्पष्टता सामने नहीं आती, तब तक कांग्रेस अध्यक्ष की नई-अनोखी घोषणा पर केवल परेशान ही हुआ जा सकता है।
गरीबी हटाने का वादा अच्छी बात है, लेकिन किसी भी दल को देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क करने की इजाजत नहीं मिल सकती। समाजवादी सोच के तहत नोट छापकर गरीबों को बांटने की योजना सुनने में आकर्षक लग सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस तरह की लोक-लुभावन योजनाओं से गरीबी दूर होने के बजाय और बढ़ती ही है। इतना ही नहीं, ऐसी योजनाओं पर अमल करने वाले देश आर्थिक रूप से बर्बाद भी हो जाते हैं।
यह एक और बड़ा आघात ही है कि पुलवामा में भीषण आतंकी हमले में शहीद सीआरपीएफ जवानों की चिता की आग बुझने भी न पाई थी कि आतंकियों से लोहा लेते हुए पांच और जवानों के बलिदान होने की खबर आ गई। इनमें एक मेजर भी हैं। पुलवामा हमले की साजिश रचने वाले आतंकियों को पुलवामा में ही मार गिराने के अभियान में ब्रिगेडियर, लेफ्टिनेंट कर्नल, मेजर, कैप्टन और डीआईजी समेत सात जवान घायल भी हुए हैं। इस अभियान में हताहत अधिकारियों और जवानों की यह संख्या यही बताती है कि कश्मीर में खतरा किस तरह बढ़ता जा रहा है।
नि:संदेह यह सेना, सुरक्षा बलों और जम्मू-कश्मीर पुलिस के अदम्य साहस और संकल्प का प्रमाण है कि उन्होंने मिलकर पुलवामा हमले की साजिश रचने वाले आतंकियों को सौ घंटे के अंदर खोजकर मौत के मुंह में धकेल दिया, लेकिन उनका दमन करने के क्रम में उन्हें जो क्षति उठानी पड़ी, वह चिंता का विषय है। यह सही है कि घिनौनी नफरत से भरे और मरने-मारने पर आमादा आतंकियों के सफाए के हर अभियान में जोखिम होता है, लेकिन आखिर कश्मीर में ऐसा कब तक चलता रहेगा? जनता के मन में यह सवाल उठ रहा है कि कश्मीर में हमारे जवान आखिर कब तक इसी तरह बलिदान देते रहेंगे? यह सवाल इसलिए गंभीर हो गया है, क्योंकि कश्मीर में आतंकियों की विषबेल खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। कश्मीर एक संवेदनशील क्षेत्र है, जहां देश भर के जवान तैनात हैं। जब वे यूं वीरगति को प्राप्त होते हैं तो इससे पूरे देश का वातावरण प्रभावित होता है। जवानों के परिजन कश्मीर में तैनात अपने लोगों की कुशल-क्षेम के लिए सदैव चिंतित बने रहें, यह कोई अच्छी स्थिति नहीं। यह स्थिति आम जनता के मनोबल पर असर डालती है।
देश की जनता इसके प्रति तो सुनिश्चित है कि सेना और सुरक्षा बलों के आगे कश्मीर में सिर उठाने वाले आतंकियों की खैर नहीं, लेकिन वह यह जानने के लिए अधीर हो रही है कि आखिर देश के इस हिस्से में कब अमन-चैन कायम होगा? इस सवाल का जवाब देश के समस्त राजनीतिक नेतृत्व को देना होगा। यह अच्छा नहीं कि कश्मीर को शांत करने की कोई पहल होती नहीं दिख रही है। घाटी में एक ओर जहां अलगाव और आतंक के समर्थकों का सख्ती से दमन करने की जरूरत है, वहीं देशभक्त कश्मीरियों को साथ लेने की भी उतनी ही आवश्यकता है। आखिर इस दिशा में कोई ठोस पहल कब होगी? क्या यह सही समय नहीं जब कश्मीर में अलगाव की मानसिकता का पोषण करने वाली धारा 370 खत्म की जाए और वहां के लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए हरसंभव उपाय किए जाएं? वास्तव में जितनी जरूरत अमन-चैन पसंद लोगों को हर तरह से आश्वस्त करने की है, उतनी ही इसकी भी कि आतंकियों के बचाव में पत्थरबाजी करने वालों को ऐसा सबक सिखाया जाए कि वे फिर कभी पत्थर उठाने की जुर्रत न कर सकें। सहने की एक सीमा होती है। देश का राजनीतिक नेतृत्व यह समझे तो बेहतर कि कश्मीर के हालात से देश व्यथित है और उसकी व्यथा दूर करने के लिए ठोस कदम उठाना उसकी जिम्मेदारी है।
प्रत्यर्पण की प्रक्रिया आसान बनाने हेतु अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठानी होगी, ताकि ऐसा कोई कानून बने जिससे वांछित तत्व बहानेबाजी कर बचने न पाएं।
भारत में घपला-घोटाला या अन्य कोई अवैध-अनुचित काम कर विदेश में छिपने वालों को स्वदेश लाने के लिए कूटनीतिक गतिविधियों को गति देना समय की मांग है, लेकिन इसी के साथ उन उपायों पर भी गौर किया जाना चाहिए, जिससे प्रत्यर्पण में कम से कम समय लगे। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अधिकतर मामलों में विदेश में जा छिपे लोगों को भारत लाने में कहीं अधिक समय लग जाता है। नि:संदेह यह राहतकारी है कि ब्रिटेन के गृह मंत्री ने विजय माल्या को भारत प्रत्यर्पित करने की अनुमति दे दी, लेकिन अभी यह तय नहीं कि वह भारत के हाथ कब लगेगा। विजय माल्या ब्रिटेन के गृहमंत्री के आदेश के खिलाफ वहां के उच्च न्यायालय में अपील करेगा। यदि उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को सही पाया, तब जाकर माल्या का भारत आना सुनिश्चित हो सकेगा। हालांकि इसके आसार न के बराबर हैं कि उच्च न्यायालय निचली अदालत के आदेश में कोई हेरफेर करेगा, लेकिन अभी यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपना फैसला कब सुनाएगा? देखना यह भी होगा कि ब्रिटिश उच्च न्यायालय के आदेश के बाद विजय माल्या भारत आने से बचने के लिए कोई जतन करता है या नहीं? ध्यान रहे कि वह भारत आने से बचने के लिए किस्म-किस्म के बहाने गढ़ता रहा है। यही काम पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले के आरोपी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी भी कर रहे हैं। जहां नीरव मोदी यह राग अलाप रहा कि उसे भारत में खलनायक की तरह देखा जा रहा, वहीं मेहुल चोकसी यह बहाना पेश कर रहा कि वह एंटीगुआ से भारत तक का लंबा हवाई सफर नहीं कर सकता। विडंबना यह है कि कई बार इस तरह की बहानेबाजी को संबंधित देशों की अदालतें महत्व देने लगती हैं।
यह एक तथ्य है कि ब्रिटेन की अदालतों ने भारत में वांछित कई तत्वों को इस आधार पर प्रत्यर्पित करने से मना कर दिया कि यहां की जेलों की दशा अच्छी नहीं है। एक ओर ब्रिटेन जैसे देश हैं, जहां का प्रत्यर्पण संबंधी तंत्र कुछ ज्यादा ही जटिल है, वहीं दूसरी ओर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश हैं, जो वांछित शख्स की पहचान स्थापित होने और उसकी कारगुजारी का विवरण मिलते ही उसे प्रत्यर्पित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी देश हैं, जो प्रत्यर्पण के मामले में एक तरह से मनमाना रवैया प्रदर्शित करते हैं। पुरुलिया कांड में वांछित किम डेवी का पुर्तगाल से प्रत्यर्पण नहीं हो पा रहा है तो इसीलिए, क्योंकि वहां की सरकार भारत की चिंता समझने के बजाय अपने आपराधिक अतीत और छवि वाले नागरिक की हिफाजत को ज्यादा अहमियत दे रही है। यह सही है कि पुर्तगाल सरीखे योरपीय देश मानवाधिकारों को कहीं अधिक अहमियत देते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे इसके नाम पर अपराधियों का बचाव करें। जरूरी केवल यह नहीं है कि पुर्तगाल सरीखे देशों के प्रति सख्त कूटनीति का परिचय दिया जाए, बल्कि यह भी है कि प्रत्यर्पण की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज भी उठाई जाए, ताकि ऐसा कोई कानून बन सके, जिससे वांछित तत्व बहानेबाजी कर प्रत्यर्पण से बचने न पाएं।
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